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यह पथ बन्धु था

श्रीनरेश मेहता

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :469
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2208
आईएसबीएन :00000

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भारतीय स्वाधीनता संग्राम-काल के एक साधारण व्यक्ति श्रीधर ठाकुर की असाधारण कथा का यह बृहत् उपन्यास।

yah Path Bandu Tha

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय स्वाधीनता संग्राम-काल के एक साधारण व्यक्ति श्रीधर ठाकुर की असाधारण कथा का यह वृहत् उपन्यास, श्रीनरेश मेहता के विवादास्पत प्रथम उपन्यास ‘डूबते मस्तूल’ से बिलकुल भिन्न भावभूमि, संकार तथा शैली को प्रस्तुत करता है। कथा-नायक श्रीधर बाबू, एक व्यक्ति न रह कर प्रतीक बन गये हैं, उन सब अज्ञात छोटे-छोटे लोगों के जो उस काल के राष्ट्रीय संघर्ष, परम्परागत-निष्ठा तथा वैष्णव-मूल्यों के लिए चुपचाप होम हो गये। इतिहास ऐसे साधारण जनों को नहीं देखता है, लेकिन उपन्यासकार एक साधारण-जन को इतिहास का महत्व दे देता है। लेखक की परिपक्य जीवनी-दृष्टि, जीवनानुभव और कलात्मक-शक्ति ने एक साधारण-जन को सारी मानवीय संवेदना देकर अनुपम बना दिया है। श्रीनरेश मेहता अपनी भाषा, संस्कार तथा शिल्प के लिए कवियों और गद्यकारों में सर्वथा विशिष्ट माने जाते हैं और यह महत्वपूर्ण उपन्यास हमारे इस कथन की पुष्टि करता है।

यह पथ बन्धु था।


आज से दस वर्ष पूर्व, उस दिन भी कस्बे में काफी हलचल हुई थी जब श्रीधर बाबू द्वारा सम्पादित साप्ताहिक ‘‘शंखनाद’’ काशी से आया था। उनके अज्ञातवास को तब पन्द्रह वर्ष हो चुके थे। लोक स्मृति तो उन्हें प्रायः भुला ही चुकी थी। एक दिन सहसा एक पत्र-सम्पादक के रूप में श्रीधर बाबू का नाम, और वह भी ‘कासी जी’ के एक साप्ताहिक पर देखकर लोगों को अविश्वास ही हुआ। लेकिन जब प्रतिसप्ताह ‘‘शंखनाद’’ आने लगा तो निराधार अविश्वास, आश्चर्य में परिणत हो गया। कस्बे के जीवन में पिछले कुछ बरसों में आश्चर्यजनक बातें घटने लगी थीं। वर्ना रेल लाइन आने के पहले आश्चर्य की कौन कहे साधारण घटनाएँ भी सहज नहीं थीं। रेल लाइन ने इस कस्बे में अवश्य ही क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिये थे। अब आये दिन लोग उज्जैन आने-जाने लगे थे। नहीं तो पहले ‘मेलकाट’ (मेल कार्ट-डाक ताँगा) में बैठकर उज्जैन जाने का मतलब बहुत बड़ी बात होती थी। बड़े-बड़े साहूकार, साहूकारी के लिये या फिर कोई जमींदार या अफसर ही सरकारी कोर्ट-कचहरी के काम से आया-जाया करते थे।
इस रेल लाइन की पहली आश्चर्यजनक घटना के बाद श्रीधर बाबू को उनकी इतिहास की पुस्तक पर स्वयं श्रीमन्त सरकार ने जो प्रशंसापत्र भेजा था वह इस कस्बे की दूसरी महान आश्चर्यजनक घटना थी। और बरसों बाद उन्हीं श्रीधर बाबू ने काशी जैसी तीर्थनगरी से पत्र का सम्पादन कर, कस्बे वालों को गौरवान्वित होने का मौका दिया। बस्ती के लोगों ने गर्व का अनुभव किया कि-चलो इस पठारी भूमि से भी एक ऐसा व्यक्ति तो निकला जिसका नाम अखबार में प्रति सप्ताह छपता है पिता श्रीनाथ ठाकुर ‘कीर्तनिया जी’ का महत्व ‘‘शंखनाद’’ से जितना बढ़ा उतना उनके शेष दोनों पुत्रों के सरिश्तेदार या घोड़ा-डाक्टर बन जाने से भी नहीं बढ़ा था। अब आये दिन श्रीधर बाबू का कब, कौन और कितना मित्र रहा इस पर बहसें होने लगीं। अपने कस्बे के समाचार भी छपे, इसके लिए, गणेशोत्सव, सरस्वतीपूजा से लेकर थानेदार की बदली तक में सरगमी आ गयी। आये दिन ‘‘शंखनाद’’ कार्यालय के पते पर उन सब लोगों की बातें, लाग-डाँट के साथ पहुँचायी जाने लगीं जिन्होंने श्रीधर बाबू के विरूद्ध उनके बड़े भाई सरिश्तेदार श्रीमोहन ठाकुर को प्रसन्न करने के लिए फैलायीं थी या उड़यी थीं।
लोकमुख के आँखें नहीं होती, मात्र, जिह्वा होती है। श्रीधर बाबू के जाने को जिन्होंने उस समय ‘भागना’ कहा था वे ही अब पन्द्रह साल बाद इस अज्ञातवास को एक कर्मठ व्यक्ति का ‘समाधिकाल’ कहने लगे। भला सरिश्तेदार साहब की बात का विरोध कोई कर सकता था ? -हम तो कहें कि जब संसार चलाने का ढंग नहीं आता था, तो भाई ! यह बाल-बच्चों का प्रपंच किया ही क्यों ? क्या नाक चुई जा रही थी ? भाई-भौजाई पर दो-दो लड़कियाँ; एक लड़के और पत्नी को छोड़ जाना कहाँ की भलमनसाहत है ? और फिर भाई ! तुम जानो, कै दिन ? अपनी साँसत ही कोई कम है जो भला दूसरे की भी ओढ़ी जाए ? ये तो बेचारे सरिश्तेदार साहब पर जिन्दगी भर का बोझ हो गया।
पिता श्रीनाथ ठाकुर जिधर जाते लोग उनसे सहानुभूति जताते।
-अभी तो श्रृंगार में देरी है, आज राजभोग देर से होंगे। मंडली हो गयी ? खैनी तो खा जाओ कीर्तनिया जी !

चूना मिलाते हुए तर्जनी से तम्बाकू ही नहीं मली जाती बल्कि दुनिया-जहान की बातें भी मिलायी जातीं, फटकारी जातीं।
-तुम जानों कीर्तनिया जी ! कैसी बुढ़ौती बिगड़ी तुम्हारी भी। तीन-तीन लड़के उछेर कर बड़े किये। ब्याह किया। काम-धंधे से लगाया। बड़े और छोटे ने अपनी और कुल की इज्जत बढ़ायी। गाँव का भी नाम हुआ साहब, लेकिन इस श्रीधर ने कैसी किताब लिखी कि क्या बताएँ। ठाकुर जी की सेवा करने के दिन तुम जानो अब आये थे। राम-राम इस सिरीधर ने कैसी करी। अपने तो ऊँचा मुँह किये जाने कहाँ गया लेकिन बच्चों और बहू की साँसत कर गया। अरे तुम और ठकुराइन माँ हैं तब तक तो गाड़ी खिंचेगी ही और क्या। लेकिन कीर्तनिया जी ! उसके बाद क्या होगा ? भाई-भौजाई कभी किसी के सगे हुए हैं जो इन्ही के होंगे ?
और खैनी मुँह में दाबे श्रीनाथ ठाकुर इस तरह दस बरस चुपचाप मन्दिर की ओर बढ़ जाया करते रहे हैं। रोज रात मंडली की कथा बाँच, सब कुछ समाप्त करके दुपट्टे में ‘प्रसाद जी, बाँध पीछे की गली से होते हुए जिस समय बाजार में पहुँचते, अधिकांश दुकाने बन्द हो गयी होतीं। दो-एक हलवाइयों तथा पनवाड़ियों की दुकानों के ही गैस या हण्डे जलते मिलते। इमली वाले नुक्कड़ पर उनके बालमित्र वासुदेव दवे की पेड़े की प्रसिद्ध दुकान थी, जहाँ वे नित्य मन्दिर से लौटकर बैठते। मंडली के बाद शतरंज की बाजी जमती और इस तरह रात के बारह के पहले घर कभी नहीं पहुँचते। वासुदेव की दुकान पर इस तरह वे पिछले पचास बरस से भी अधिक हो गया, बैठते रहे हैं। इस दुकान के सामने सेठ-साहूकारों की दुकानें चौक तक चली गयी थीं। जहाँ इस समय उनकी गद्दियों पर मलमल के ढक्कनों में रखी समइयाँ जल रही होतीं। उस दूध रंग के प्रकाश में दुकानों के बड़े-बड़े गाव-तकिये ऊँघते से लगते। कभी-कभी भान होने लगता कि उन गाव-तकियों ने ही लाल पगड़ियाँ पहन रखी हैं और वे ही साहूकार हैं। दूर किले के कँगूरों पर सप्तर्षि देखकर ही समय का अंदाजा किया जाता और श्रीनाथ ठाकुर का दिन समाप्त होता । ऊँघती गलियों और औंघाते मकानों में अपने चलने की प्रतिध्वनि लिये वे घर पहुँचते ।
लेकिन श्रीधर बाबू की माता के लिये तो ठाकुर जी के दर्शन करने जाना और करना दोनों ही मुश्किल हो जाते। न हुआ तो कोई जैन सेठानी माँ ही रास्ते में साथ हो लीं। उन्हें ‘थानक जी’ या ‘केसरिया जी ’ के मन्दिर जाना होता ही था। भला श्रीधर बाबू की माँ से अच्छा और साथ क्या हो सकता था ? मकान-गहनों से बात चलते-चलते श्रीधर बाबू पर अवश्य ही आती। तरस खाया जाता। सहानुभूति दिखलाई जाती। दोनों घूँघट निकाले बाजार पार करतीं और अस्पताल वाली गली पकड़तीं, जहाँ से दोनों के रास्ते अलग हो जाते। श्रीधर बाबू की माता इन सब बातों से बचने के ख्याल से ‘मंगला में न जाकर’ ‘श्रृंगार’ के दर्शनों को जातीं। लेकिन कुछ नहीं तो सुनारन माँ ही मिल जातीं।
-क्यों बहू ! सिरीधर का पता लगा ? अरे ऐसा भी क्या जाना।
उधर दर्शन होते, मुखिया जी दर्पण में ठाकुर जी को श्रृंगार दिखाते होते और इधर सारे कीर्तन को चीरते हुए सुनारन माँ ‘गोविन्द-गोविन्द’ की टेक के साथ सहानुभूति जताती होती। या कभी ‘मंगला’ के बाद श्रृंगार के लिए फूलों की माला मंदिर के चौक में बैठकर बनाते हुए बड़ी हवेली वाली सासू माँ ही खोद-खोद कर पूछतीं, -बहू ! सच्ची ही सिरीधर अपने से गया ? मुझे तो लगे हैं कि बड़े की बहू ने जरूर ऊँच-नीच कह दिया होगा। अब तुम तो जानो ही हो, मरद की बात ठहरी। कोई बात लग गयी होगी। अरे नहीं तो उस जैसा सुशील लड़का आस-पड़ौस ही नहीं दूर-दूर तक नहीं दिखेगा। इन औरतों के मारे ही घर का बंटा-ढार होवे है। लेकिन बहिन ! कीर्तनिया जी को थोड़ा कड़ा होना चाहिए, इतना सीधा भी किस काम का !

भगवान के दर्शन और अपना जीवन दोनों ही दुर्लभ हो गया दोनों का। मंदिर के उस बड़े से चौक में ‘शयनारती’ के बाद मण्डली रोज ही होती। जिधर कुआँ है उधर ही एक खंभे पर लालटेन टिमटिमाती रहती। तुलसी क्यारे के उधर तोता ‘जय श्रीकृष्ण’ जय ‘श्रीकृष्ण’ चीखा करता। श्रीनाथ ठाकुर ‘‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता ’’ सुनाते होते। दो कथाओं के अन्तराल में कोई न कोई परचूनी, गंधी या मुनीम छेड़ बैठता, -कुछ पता चला मँझले का ? उज्जैन में तो तुम जानो वो है नहीं। अभी कल ही तो कुँवर दर्जी गया था। वहाँ होता तो सिद्दनाथ, हरिसिद्ध, गोपाल मंदिर, देवास गेट कहीं न कहीं तो मिलता ही। तुम जानो मेरी समझ में तो वो खण्डवा पेले पार ही निकल गया होगा। इन्दौर-बम्बई में कोसिस की ? आज कल के छोरों को जरा सा पढ़ा दो तो बस, सीधे बम्बई ही पहुँचते हैं। मैंने तो तुम जानो इसीलिए नरान को अभी से दुकान पर बिठाल दिया। खूँटे से बाँध दो फिर कहो-बच्चू कितना उछलोगे ?
और फिर अगली कथा आरंभ हो जाती। मन्दिर के जलघड़िया दामोदर ने जब ‘‘शंखनाद’’ की प्रति देखी और आश्वस्त हुआ तब उसने उतनी ही तन्मयता से श्रीधर बाबू की स्तुति आरंभ कर दी जितनी कि वह निन्दा किया करता था। जिस दिन ‘‘शंखनाद’’ की प्रति आयी थी उस रात देर तक बँगवई (कड़े वाला झूला जो गुजराती घरों से प्रायः होता है) के कड़ों की आवाज में ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ का पाठ करते हुए पिता श्रीनाथ ठाकुर आकुल बने रहे। रोज की तरह आज भी पास बैठी श्रीधर की माँ ‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’’ का जाप करतीं बाहर के दरवाजे पर टकटकी लगाये थीं कि कभी तो श्रीधर के पैरों की हल्की आहट सुनायी दे जाये। श्रीधर किस तरह दरवाजे की कल खोलता है, उसके पैरों की आहट कैसी है, वह किस तरह घर में आने पर सबसे पहले उनके पास आकर बैठता है न कि बड़े और छोटे बेटे की तरह अपने कमरे में जाकर बीबी से ही-ही करने सीधे पहुँचे गये। हँसते में कैसे उसके दाँत सीपी जैसे चमकते हैं। भले ही दस नहीं पचास बरस भी हो जाएँ वे दूर से ही पहचान सकती हैं कि, हाँ वह श्रीधर ही है। श्रीधर का पसीना ‘इनकी’ तरह नहीं बासता, नहीं तो शेष लोगों का तो-बस भगवान बचाए।
दोपहर में ‘‘शंखनाद’’ की प्रति लेकर वे अपने पूजाघर में जाकर कैसे फफक-फफक कर रोती रही थीं कि जैसे श्रीधर ही हो। वह ‘कासी जी ’ में है। इस अखबार को उसने खास तौर से अपनी मां के लिए भेजा है। वे उस अखबार का एक-एक अक्षर बिना समझे पढ़ गयी। और रात भर नहीं सो सकीं। ‘‘शंखनाद’’ की प्रति लेकर माँ, सरो के कमरे में पहुँची और उसे सीने से लगाकर फूट पड़ीं। उनके आँचल तक भर उठे थे जैसे श्रीधर सारे बरसों को चीरकर उनकी गोदी में आ गया है। श्रीधर है, ‘कासी जी’ में है, इस बात से उन्हें परम सन्तोष हो रहा था। और इसका निश्चय वे बार-बार बहू के मुँह, पीठ, हाथ-पैर पर अपने हाथ फेरकर कर रही थीं। बहू, बेटा हो गयी थी। पिछले पन्द्रह बरस के बहू के सारे तन और मन के सारे घाव वे आज छूकर एक बार में ही भर देना चाहती थीं। आज ही वह उन्हें सौभाग्यवती, विवाहिता, जाने क्या-क्या लग रही थी। जैसे ही पति के आने की आहट हुई, ओसारे का दीया बढ़ा कर वे बिना पाठ किये ही करवट ले उदास हो गयीं। दीवार पर अँधेराधुला उजाला बिछल आया था। वे चारों ओर से असम्पृक्त हो इस समय श्रीधर में ही बसी हुई थीं। रह-रह कर घुटनों चलते श्रीधर से लेकर गोल इटालियन टोपी, चुन्नटी धोती वाले मास्टर श्रीधर बाबू याद आ रहे थे। वे उस अनदेखी अनजान ‘कासी जी’ में अपने श्रीधर को ढूँढती रहीं। तभी पति दरवाजे की कल लगा आँगन में आये। उनके ओर पीठ होते हुए भी वे जान गयीं कि पति ने एक क्षण ठिठक कर देखा है कि क्या वे सो गयीं ? खूँटी वाली चट्टियाँ चटकाते जब वे बगवई पर जाकर गाव-तकिये का सहारा लेकर पलथी मार कर बैठ गये और अन्य दिनों का अनायास ‘‘विष्णुसहस्त्र नाम’’ का पाठ आज सायास आरंभ हुआ, तब भी वे वैसी ही बनी रहीं। वे सोच रही थीं कि अब तो मानता जरूरै पूरी करनी होगी। श्रीधर का पता लगने पर वे मन्दिर में एक सोने की झारी भेंट करेंगी तथा जाड़े भर अपरस में स्नान करेंगी-ये मानता वे अब जल्द ही पूरी करना चाह रही थीं।

भाद्रपद था। बादल घिर आये थे, जिनमें चन्द्रमा कभी-कभी झलक उठता था। दृष्टि जैसे मुँडेरों झुक आयी थी। पाठ समाप्त कर पति तकिये के सहारे अधलेटे कुछ सोच रहे थे। श्रीधर की माता ने करवट बदली और ओसारेके झिंझरे अँधेरे में देखा कि पति अर्धनिमीलित से विचारमग्न हैं। ‘इनका’ मुख श्रीधर से कितना मिलता है ? वह भी तो ऐसे ही सिर के नीचे हाथ रखकर सोता है। ठीक ऐसा ही आकार है उसका भी। बस, अन्तर है तो यही कि उसने रंग और कद अपनी माँ का प्राप्त किया है। तभी पति सचेष्ट हुए। दूर पुलिस लाइन के घंटे ने बारह की गरज बजायी। सिरहाने रखी ताँबे की कलसी से उन्होंने जल पिया और वापस बँगवई को एक पैर से झूला देकर लेटे ही थे कि वे बोलीं, -सुनो, श्रीधर सचमुच ही ‘कासी जी’ में है न ?
-अरे, तुम अभी सोयीं नहीं क्या ?
-नींद नहीं आयी?
-नींद तो मुझे भी नहीं आयी। कैसा दुष्ट है तुम्हारा लड़का। पंद्रह-बीस बरस हो गये, बेचारी बहू की भी कुछ चिन्ता नहीं उसे। कोई इस तरह भाग जाता है ? कैसा नाम निकाला इसने ।
-अब तुम तो उसके पीछे ही पड़ गये। मुहल्ले-टोले वाले ही क्या कम थे ? पता नहीं वह वहाँ किस तरह होगा। इसकी तो कुछ चिन्ता ही नहीं। अरे, उसने कितना बड़ा अखबार ‘कासी जी’ से निकाला कि वहाँ से यहाँ तक नाम हो गया। सब लोग किसी दूसरे की इतनी चर्चा करते है जितनी तुम्हारे श्रीधर की ?
-हरि इच्छा !!
और श्रीनाथ ठाकुर लेटने के लिए करवट बदलने लगे।
-बात टालो नहीं। सुनों क्या हम लोग ‘कासी जी’ चलकर उसे लिवा नहीं ला सकते है? तीरथ भी हो जाएगा, गंगा जी भी नहा लेगें और...
-अब जब उसने अपने होने की खबर दी है तो वह आएगा भी, बहू को भी ले जाएगा, हम भी चलेंगे। पहले उसे....
-यही तो तुम्हारी बुरी आदत है कि पहले वह लिखे, आये, तब कहीं कुछ तुम करोगे। है न ? आखिर लड़का ही है। हमें जैसे खबर लगी है उसे देखने....तो फिर मुझसे क्या पूछ रही हो, करो अपने मन की।
-तुमसे तो बात करना भी कठिन है। ठीक है, फिर लड़ो तुम बेटे से लड़ाई मैं तो अब एकादशी से ही मन्दिर में अपरस में नहाया करूँगी। मुखिया जी से कह देना।
-चौमासा तो हो जाने दो। श्राद्धपक्ष आ रहे हैं, मुझे नवदुर्गा में भागवत भी बाँचने नरसिंहगढ़ के यहाँ जाना होगा। कैसे क्या होगा जरा सोचो तो ?
-सारी उमर तो यही सब विचारते-करते बीती। मैंने तो मानता मानी थी सो पूरी करनी होगी। अभी तो ठाकुर जी के लिए सोने की झारी भी बनवाने का प्रबन्ध करना है।
-लेकिन सोने की झारी के लिए पैसे आदि....
-मेरे पास एक गलसरी अभी भी चार तोले की है। उसी से मेरा प्रण पूरा हो जाएगा। श्रीधर से ज्यादा गलसरी नहीं है।
-हरि इच्छा !!
और पति ने बँगवई को झुला दिया। कड़ो की आवाज होने लगी। बातों में बहुत रात बीत गयी थी, यह दोनों को ही पता नहीं चला। दूर कोई बहू पिसना पीसते चक्की के संग गा रही थी।

लेकिन आज जब से लोगों को मालूम हुआ कि स्वयं श्रीधर बाबू पूरे पचीस बरस बाद मालवा लौट रहे हैं, तब से कस्बे में बहुत बड़ी हलचल होनी स्वाभाविक ही थी।
देवीसिंह डाकिये ने जब डाक का थैला खोला और मुहल्लेवार चिट्ठियाँ लगायीं तभी उसने देखा कि एक ही लिखावट की अनेक चिट्ठियाँ हैं और जो कि छावनी वाले सेठ पूनमचंद जी, रिटायर्ड ओवरसियर नारायण बाबू, बड़ी हवेली वाले विट्ठलनाथ जी, वामन माधव चितले वकील साहब, कांग्रेसी मन्त्री दुर्गादास जी नागर तथा श्रीनाथ ठाकुर कीर्तनिया जी के नाम लिखी गयी हैं। देवीसिंह ने मात्र उत्सुकतावश एक कार्ड अवश्य पढ़ लिया था। उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ कि उसके ‘गुरु जी’ श्रीधर बाबू ? जो बिना कुछ कहे-सुने एक दिन अनायास चले गये थे, कल आ रहे हैं। तो क्या उन्हें यह भी नहीं मालूम कि उनके पिता-माता का देहान्त हो गया है ? ‘कीर्तनिया जी’ को पत्र लिखने का प्रयोजन ? कदाचित घर के लोगों को सूचित करने के लिए लिखा हो।
और देवीसिंह के सामने आज से पच्चीस बरस पूर्व के ‘गुरू जी ’ मूर्त हो उठे।
पूर्व पथ और देवीसिंह के सामने आज से पच्चीस बरस पूर्व के ‘गुरू जी’ अपनी उसी इटालियन गोल टोपी, बन्द गले का एडवर्ड कोट, चुन्नटी धोती, गले में दुपट्टा, पैरों में पम्प शू पहिने तेज चाल में दिखायी दिये। मुख पर सदा यह भाव कि किसी को नहीं पहचानते। आयु यही 25-26 की रही होगी। आँखें, मँजे हुए ताँबे के पंचपात्र सी चमकवाली किन्तु उनमें लाल बजरियों पर डोलती उदास दोपहरी की छाया का एकान्त भी सदा मुखर रहता। हल्की पतली मूँछे उनके लम्बे मुँह को सन्तुलित ही करती थीं। एक नासिका के लम्बेपन को छोड़कर उस मुख में कोई विशेषता गिनाना कठिन ही था। जो था, अति साधारण ही था। विशिष्ट या आचार के अतिरेक के नाम पर देवीसिंह को यही याद रहा कि वे वैष्णव होते हुए भी नित्य पार्थिव पूजन किया करते थे।
आज की भाँति न तो अंग्रेजी मिडिल स्कूल ही था और न स्कूल की वर्तमान इमारत ही थी। बल्कि उन दिनों तो हिन्दी फाइनल मिडिल स्कूल था और वह भी आजकल छावनी में जहाँ कोआपरेटिव बैंक है, वहाँ लगा करता था। स्कूल बनने के पहले वह फौजी डाकघर था। ऊँचे टीले पर बना स्कूल, किले की घाटी से ही दिखायी देता। उसका घण्टा तो तालाब पर नहाने वालों को दिन भर सुनायी पड़ता। स्कूल के आँगन में जहाँ घण्टे के पास बड़ा सा आला था उसमें गाडगिल हेड मास्टर साहब का पीने का पानी रखा रहता था। पानी का जर्मन सिलवर का चमकता लोटा दूर से ही दिखलाई देता था। कोई उसे छू नहीं सकता था क्योंकि गाडगिल साहब कट्टर दक्षिणी ब्राह्मण थे। उनका बरारी ब्राह्मण नौकर जूते निकाल कर ही पानी पिलाता था।
श्रीधर बाबू मिडिल कक्षा को हिन्दी, इतिहास तथा भूगोल पढ़ाया करते थे। स्कूल की दीवाल-घड़ी का ‘बैलेन्स’ आये दिन ड्राइंग मास्टर रघुराज सिंह कुर्सी पर चढ़े ठीक करते हुए देखे जाते। एक से लेकर बारह तक घड़ी बजाती फिर भी कभी ठीक नहीं चलती। अतएव पूरे स्कूल का टाइम टेबल श्रीधर बाबू की एकमात्र जेब घड़ी पर निर्भर रहता था, जो उनके कोट की ऊपरी जेब में काले डोरे से बँधी रखी रहती तथा जिसका काला डोरा गले में पड़ा रहता। घण्टा कब बजना है इसके लिए चपरासी को हर बार उनके पास आना पड़ता था और वे पढ़ाते हुए हाथ की अँगुलियों से मिनट बता दिया करते थे कि अभी कितना समय है। फलस्वरूप घण्टा प्रायः देर से ही बजा करता था। श्रीधर बाबू स्कूल से लौटते हुए तारघर से घड़ी मिलाना कभी नहीं भूलते थे। सबकी धारणा थी कि श्रीधर बाबू सीधे अवश्य हैं किन्तु अत्यन्त नीरस व्यक्ति हैं, जो राह चलते भूलकर भी सिर नहीं ऊँचा करते। प्रायः लोगों ने उन्हें चुप्पा ही देखा था। पढ़ाते हुए भी वे कभी ऊँचा नहीं बोलते थे। बल्कि हाजिरी भरते हुए भी वे लड़को के नाम तक नहीं पुकारते थे। रजिस्टर खोला, चुपचाप लड़को की ओर देखते चले गये और भर लिया कि कौन आया, कौन नहीं आया। श्रीधर बाबू नियमनिष्ठ थे बल्कि ये कहा जाये कि वे अपनी सीमाओं को भली-भाँति जानने वाले व्यक्ति थे।

ऐसे श्रीधर बाबू ने ‘‘...राज्य का गौरवमय इतिहास’’ नामक एक पुस्तक भी लिखी थी। इसलिए वे इतिहास लेखक भी थे। वह इतिहास जो न केवल मिडिल कक्षा के लिए ही उपयुक्त समझा गया बल्कि स्वयं श्रीमन्त सरकार ने इस पुस्तक पर एक प्रशंसापत्र उन्हें भेजा था वह प्रशंसापत्र सुनहरी फ्रेम में मँढ़ा उनकी बैठक में टंगा रहता था और जिसकी सुन्दर अक्षरों में एक प्रतिलिपि हेड मास्टर साहब के कमरे में भी टँगी रहती थी
निष्ठावान वैष्णव, ब्राह्मणकुल में पण्डित श्रीधर बाबू का जन्म एक इतिहास लेखक के रूप में किस प्रकार हुआ, इस प्रकार आश्चर्य करना व्यर्थ है क्योंकि नार्मल स्कूल के लिए, उन्होंने जो निबन्ध परीक्षा के समय लिखा था उसमें वे सारे आधार-भूत तत्व मौजूद थे जो आगे चलकर उनसे इतिहास लिखवा ले गये। इतिहास का प्रणयन नहीं बल्कि उनका निरूपण आश्चर्य की बात थी। अपने राज्य को गौरव-मय-सिद्ध करने के लिए श्रीधर बाबू ने पाण्डवों के अज्ञातवास से लेकर मुगल सम्राटों की यात्राओं के सारे अभियानों का सम्बन्ध इस प्रदेश से जोड़ा। अपने यहाँ के कालिका के मन्दिर की प्रसिद्धि का ऐतिहासिक कारण वे यह मानते थे कि कालिदास ने इसकी स्थापना की थी और इसीलिए उनका नाम कालिदास प्रसिद्ध हुआ। भारतीय इतिहास की अधिकांश महत्वपूर्ण घटनाओं का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में इस प्रदेश से या तो उनके आरंभिक कारणों के साथ सम्बद्ध मिलेगा या फिर उनके प्रतिफल के साथ संयुक्त। इस प्रकार श्रीधर बाबू की यह ऐतिहासिक कृति न तो असत्य कही जा सकती थी और न ही प्रामाणिक भी। गौरवमय वह अवश्य और (संभवतः) लेखक का भी अभीष्ट मात्र इतना ही तो था।
लेकिन इस पुस्तक के कारण जो भी भौतिकता या यश उन्हें उपलब्ध हुआ उससे उनके व्यक्तित्व में कोइ विकार नहीं आया। वे उन दिनों स्वामी विवेकानन्द की पुस्तकें पढ़ा करते थे। वे कब इतिहास और भूगोल पढ़ाते-पढ़ाते साहित्य, और कब साहित्य पढ़ाते-पढ़ाते विवेकानन्द पर आ जाएँगे इस बारे में कोई निश्चित नहीं कहा जा सकता था। वे चाहे अधिक लोकप्रिय न रहे हों किन्तु श्रद्धा के पात्र माने जाते थे।

इतिहास लेखक श्रीधर ठाकुर कुलीन तो नहीं ही थे लेकिन कुलशील वाले अवश्य थे। शान्त एवं नीरस लगने वाले इस व्यक्ति के बारे में सभी की धारणा थी कि कुछ भी हो श्रीधर बाबू शील सम्पन्न, आज्ञाकारी हैं। लेकिन स्वयं के बारे में उनकी धारणा थी कि मैं यह सब हूँ नहीं, पर ऐसा आभास देता हूँ। कोई क्यों नहीं मानता कि मैं भी कभी विद्रोह कर सकता हूँ ? पुस्तकों ने अनेक अव्यक्त दिशाओं को उनके निकट व्यक्त कर दिया था। स्कूल और कस्बे के पुस्तकालय की अधिकांश पुस्तकें वे पढ़ चुके थे। एक साथ विभिन्न विषय उन्हें मोहते थे। श्रीधर ठाकुर को कोई व्यसन नहीं था लेकिन कभी-कभी वे अपने दो मित्रों के यहां शतरंज खेलने पहुँच जाते। नारायण बाबू, जो कि अब ओवरसियरी से रिटायर्ड हो चुके हैं उनके गहरे मित्र हैं। दूसरे उन दिनों एक बंगाली तारबाबू थे, पेमेन मजूमदार। सितार के बड़े शौकीन थे। पाँच बजे आफिस का काम पूरा कर पेमेन बाबू सड़क के सामने वाले बगीचे में मसनद और कुर्सियाँ डलवाकर एक टेबल पर ग्रामोफोन में रेकार्ड चढ़ा मित्रों की प्रतीक्षा में बैठ जाते। बड़े ही हँसमुँख, मिलनसार पेमेन बाबू का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह था की उनकी पत्नी पागल हो गई थी। एक मात्र सन्तान के चले जाने से पेमेन बाबू का भी जीवन एकदम उदास हो गया था लेकिन किसी तरह संगीत तथा मित्र मंडली में बैठकर उसे भूले रहते थे। पत्नी के लिए वह घटना अत्यन्त हानिकर हुई। वे एक कमरे में बन्द रहती थीं। देर रात तक सितार-शतरंज की मजलिस के साथ-साथ रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, रवीन्द्र से भी परिचय हुआ। लेकिन यह कभी-कभी होता था क्योंकि पेमेन बाबू के दरबार में और भी लोग आ जाते थे और वह सब श्रीधर बाबू को प्रिय नहीं होता था। प्रायः तो यही होता था कि स्कूल की छुट्टी के बाद शहर जाने वाली बड़ी सड़क पर दो-तीन मील रोज हवा खाने जाना और लौटकर बादशाही पुल पर बैठकर जल में गिरती किले के कँगूरों की परछाइयाँ देखते रहना। दूर सूर्यास्त का पीलापन चारों ओर जैसे लुटा पड़ता था। जंगल से लौटते पशुओं के रँभाने की आवाज, किले की ऊँची-ऊँची पत्थरों वाली दीवारों से प्रतिध्वनित होकर जब लौटती उसमें एक अजीब सी रहस्यात्मकता जब और भी आ जाती थी जब साँझ का पीलापन जल में झरने लगता। उस ऐकान्तिक सूर्यस्त को, पाखियों का शब्द तथा नदी का पत्थरों पर टकराना एक ऐसी दूरागत सिम्फनी बना देते थे कि अलौकिक। हल-बक्खर कंधे पर उठाये जब हाली-मवाली कच्चे रास्तों से पक्की सड़क पर जाते तो ‘राम-राम माराज’ कहकर यह तो पास से निकल जाते या फिर रास्ते की धूल को पोंछने के लिए नदी में धँस जाते। पत्थरों पर दौड़ता प्रसन्न सलिल अपने एकान्त भाव से असम्पृक्त बहता होता और पानी में हाथों पैरों के छोटे-छोटे टूट जाने वाले कुण्डल बनने लगते। ढोरों की गलघंटियाँ दूर तक सुनाई पड़तीं जैसे आकाश भी एक नीली गाय हो और उसकी गलघंटियाँ बोल रही हों। घोषालों की हाँक सुनायी पड़ती। और तभी किसी अजान के स्वर के साथ ही श्रीधर बाबू अनामस्थ हो लौटते। लेकिन मन में अव्यक्त, ऐसा सदा ही कुछ छूट जाता जिसे न वे, न सूर्यस्त, न आकाश की नीली गाय की गलघंटियाँ कुछ भी तो नहीं पकड़ पाते थे। उस शेष को न तो असन्तोष, न दुःख, न वेदना, न परिताप कुछ भी तो नहीं कह सकते थे।

लौटते में रोज ही चितले वकील साहब से साक्षात हो जाता। अधेड़ आयु के सुखी व्यक्ति के सारे चिन्ह उनके अंग एवं भूषा में स्पष्ट थे। वे उस समय अपने बड़े से चबूतरे पर आरामकुर्सी पर विश्राम करते होते। सामने बिछी हुई लाल जाजम और सफेद चाँदनी के एक सिरे पर, स्टूल पर बड़े हण्डे वाली लैम्प जलती होती तथा पेशकार मुवक्किलों से घिरा मिसलें लिखता होता। यह नहीं हो सकता था कि चितले साहब श्रीधर बाबू को देख लें तो वे बिना मिले, बिना कुछ देर बैठे चले जाएँ। चितले साहब की उस पेशवाई ढंग की प्राचीन लकड़ी की बड़ी हवेली में दरवाजे के ऊपर जहाँ आगे निकला लकड़ी का गवाक्ष, था जो कि प्रायः शहनाईवालों के बैठने के लिए बनाया जाता था, उस पर सदा चिकें पड़ी रहती थीं। वहाँ से संगीत के रियाज का स्वर आता रहता-‘कैसी निकसी चाँदनी’-‘उपवनि गात कोकिला’। किसी घर से रामायण की चौपाइयाँ सुनने में आ जातीं। घर के मोड़ पर फड़नवीस का बाड़ा पड़ता था। जहाँ सदाशिव राव रहा करते थे, जो सूबात में पेशकार थे लेकिन बड़े बैठकबाज। इसके साथ ही जब बैठक उठ जाती तब अपने चबूतरे पर टहलते हुए जोर-जोर से रूद्र पाठ किया करते थे। उनका श्लोक पाठ दूर तक सस्वर सुनायी पड़ता था। रास्ते में ‘थानक जी’ (स्थानक) के अँधरे हाल में प्रार्थनाएँ गाते हुए जैन साधुओं की जातियों की (यतियों) मुँहबँधी आवाजें सुनायी पड़तीं या फिर धर्मोपदेश चलता रहता। इस समय तक रात की लगभग शुरूआत ही होती थी पर म्यूनिसिपालिटी का लैम्पपोस्ट भभकता ही मिलता। नौ बजे रात तक जल सके- इतना तेल डालने का हुक्म होने पर भी पता नहीं क्यों, कभी तो समी-साँझ लैम्प बुझने लगती और नागनाथ की गली से लेकर अस्पताल तक एकदम अँधेरा घुप्प ही रहता। दिनभर घानी में पिलकर बैल बँधा हुआ खली खाता हुआ मिलता। खली की गन्ध दूर से ही आती जिसके साथ कच्चे तेल की भी चिपचिपाहट होती। घर के सामने कोने में बनी बड़ी सी बावड़ी में कहीं दुबके कबूतरों की गुटरगूँ बहुत गहरे से आती लगती। बिना किसी खास उत्साह के श्रीधर बाबू घर पहुँचते रहे हैं। उनकी पत्नी तब रान्नीघर में या तो कुछ काज करती होती या फिर बर्तन माँजे जाते। अपने कमरे में जाने के पूर्व वे अवश्य ही माँ के पास पाँच-दस मिनट बैठना नहीं भूलते जब उनकी पत्नी सामूमाँ के हाथ पैर दबाने के लिए आती तब कहीं श्रीधर बाबू वहाँ से उठते। अपनी उस कोठरी में एक समई के प्रकाश में सोये बच्चों के मुख दूध धुले लगते।

इसी प्रकार के समरस जीवन में वे जन्मे थे, बड़े हुए थे और बीस वर्ष तक पहुँचते न पहुँचते वे पति बन गये थे। वैवाहिक जीवन के गत पाँच-छः वर्षों में वे नियमानुसार दो पुत्रियों और एक-पुत्र के पिता भी बन गये थे। इस प्रकार पच्चीस-छब्बीस वर्ष की आयु तक कोई व्यक्तिक्रम नहीं हुआ था। जहाँ तक स्मरणीय घटना का सवाल था उनमें दो ही महत्वपूर्ण मानी जा सकती थीं, एक तो नार्मल स्कूल के लिए बाहर पढ़ने जाना तथा दूसरे इतिहास लिखकर अनायास प्रशंसा की प्राप्ति। इन दो छोटी-छोटी उपलब्धियों के बल पर श्रीधर बाबू कितने दिन तक परिवार तथा दूसरों की दृष्टि में महत्वपूर्ण बने रह सकते थे ? जब कि उनके दोनों भाईयों ने न केवल प्रगति ही की बल्कि अपनी प्रगति का परिचय भी पत्नियों के आभूषणों द्वारा अवसरों पर दिया करते थे। श्रीधर बाबू का ध्यान कभी इस ओर नहीं गया। यह तो अस्वाभाविक भी नहीं माना जा सकता, लेकिन पत्नी सरस्वती देवी ने कभी उलहने के रूप में एक क्षण को भी अपने इतिहास लेखक पति से जेठानी तथा देवरानी की इस ‘प्रगति’ पर कोई असन्तोष प्रकट नहीं किया। जब पत्नी ही वीतरागी हो जाए तब भला कौन पति चाहेगा कि ओखली में सिर दे ? कदाचित इसका कारण यही था कि सरस्वती देवी अपने माता-पिता की एकमात्र संतान थी। इसलिए संतोषी माता-पिता अपनी सन्तान में वे सब ‘सदगुण’ सहज उपलब्ध न कर सके जो परिवारों की ‘चतुराइयों’ के कारण बच्चों को सहज प्राप्त हो जाते हैं। दूसरे शायद यह भी कारण था सरस्वती मालवा की नहीं थी। उसका मायका सौरों में था। पिता अग्रेंजी के अध्यापक थे तथा अपेक्षाकृत अधिक आधुनिक। पुत्री को थोड़ी बहुत अग्रेंजी, संस्कृत तथा हिन्दी से परिचित करा रखा था। इस कारण सरस्वती में वे सब ‘सदगुण’ नहीं थे जो एक भरे-पूरे परिवार की बहुओं में होने चाहिए-दो कि चार किस प्रकार की जाती है, बड़ियों का मसाला पूछने के बहाने दूसरे की गतिविधि से स्वयं को किस प्रकार से अवगत रखा जाता है तथा दूसरों को किस प्रकार उससे अवगत कराया जाता है। ये ही तो ‘ज्ञान’ के वे सोपान हैं जिनके माध्यम से बहुएँ प्रगति एवं उन्नति करते हुए एक दिन सास के परमपद को सुशोभित करती हैं। सवेरे से देर रात तक का काम तो महरी भी करती है; ‘श्रीधर की बहू’ ने किया तो क्या लाल लग गये ? किसी पर उपकार किया क्या ? और भले ही सासूमाँ पर उपकार हो लेकिन जेठानी या देवरानी पर नहीं। जब सासूमाँ को मन्दिर से ही फुर्सत नहीं मिल पाती तब भला घर कौन सम्हाले ? क्या बिना उनके घर नहीं चलेगा ? ऐसी हालत में बड़ी बहू ही न सम्हालेंगी ? घर सम्हालना कोई आसान काम है ? इतने लोग। इतने बच्चे। इतने-आने-जाने वाले। कभी यह चीज, कभी वह चीज। कोई एक मुसीबत है ? क्या यह सब काम नहीं है ?- रही ‘डक्टर की बहू’ तो बेचारी अभी तो दो बरस हुए ब्याह कर आयी है। खेलने-खाने के यही तो दिन होते हैं। अरे, आगे-पीछे चूल्हे-चक्की में तो बेचारी को खटना ही है। और सच्ची बात तुम जानो यह भी है कि डाक्टर का कभी भी तबादला हो सकता है। मान लो हो ही गया, तब घर का काम-काज कौन देखे-भालेगा ? मँझली बहू ही को न करना पड़ेगा ? अरी बहना, अपने-अपने बच्चों का तो सभी करे ही हैं। बड़ी के तो सारे बच्चे बड़े हो गये। छोटी के अभी हैं ही नहीं। और इस प्रकार मँझली बहू श्रीमती सरस्वती देवी ‘अपने बच्चों’ का काम-काज करते-धरते आधी रात फुर्सत पातीं। लेकिन न तो कभी श्रीधर बाबू ने ही पूछा और न सरस्वती देवी ने ही कभी भूलकर ‘काँख-कूँखकर’ ही जताया कि गृहस्थी किस तरह चल रही है दोनों पति पत्नी अपने-अपने ढंग से उदास ‘अव्यक्त, सांसारिक परिवारिक जन थे।
लेकिन उन दिनों भी उन्हें कुछ लोग असाधारण तो मानते ही थे। विशेषकर पेमेन मजूमदार

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